Monday, December 27, 2010

Art is almost as old as man. It is a form of work,and work is an activity peculiar to mankind. Marx defined work in these words:
The labour process is...purposive activity...for the fitting of natural substances to human wants; it is the general condition requisite for effecting an exchange of matter between man and nature; it is the condition perennially imposed by nature upon human life, and is therefore independent of the forms of social life- or, rather, it is common to all social forms.

Friday, December 24, 2010

Scientific and Artistic Creation

The scientist and the artist are both concerned to change the world - the one the external world of man's objective relations with nature, the other the internal world of his subjective relations with his fellow-men. The scientist discovers a contradiction in his consciousness of the external world and resolves it in a scientific hypothesis; the artist discovers a a contradiction in his consciousness of the internal world and resolves it in a work of art. Both are creative acts. The scientist extends our knowledge and hence also our control of nature; the artist heightens our social awareness and so advances the class struggle.
This does not mean that the two are independent of one another. The two worlds in which they do their special work are inseparable aspects of the social world in which they live and work together. Moreover, even in their special work the scientist cannot escape from the subject nor the artist from the object.
                                                                   -George Thomson

Wednesday, December 22, 2010

विज्ञान और कला

कहा जाता है कि विज्ञान के लिए मस्तिष्क और तर्क की दरकार होती है, और रचनात्मक कार्य के लिए कल्पना की. ...यह एक प्रत्यक्ष ग़लतफ़हमी है. लोग यह तो देखते हैं की कला और विज्ञान एक जैसी चीज़ नहीं है, लेकिन यह नहीं देखते कि भेद उन विषय सामग्री का कतई नहीं है, बल्कि मात्र उस ढंग में है जिसे वे उसे पेश करने के लिए अपनाते हैं. दार्शनिक युक्तियों में बात करता है, कवि छवियों और चित्रों में , लेकिन दोनों कहते एक ही चीज़ हैं.
                                                                                                                -बेलिंस्की

Monday, December 20, 2010

कला का मूल उद्देश्य

कला का मूल उद्देश्य जीवन में मानव की दिलचस्पी की हर चीज़ को पुनः मूर्त करना है. बहुधा जीवन का स्पष्टीकरण और उसकी परिणतियों का गुण-दोष-विवेचन भी काव्यात्मक कृतियों में प्रमुख स्थान ग्रहण कर लेता है. कला का जीवन के साथ सम्बन्ध वैसा ही होता है जैसा कि  इतिहास का. उनकी विषयवस्तु में अंतर केवल इतना ही होता है की इतिहास जहाँ सामाजिक जीवन का वर्णन करता है, वहां कला व्यक्तिगत जीवन का चित्रण करती है. इतिहास जहाँ मानवजाति से सम्बंधित है, वहां कला किसी एक मानव के जीवन को अपनाकर चलती है.(जोर हमारा)
                                                                                                           -चेर्नीशेव्स्की

Sunday, December 19, 2010

The Function of Art

In order to be an artist it is necessary to seize, hold, and transform experience into memory, memory into expression, material into form. Emotion for an artist is not everything; he must also know his trade and enjoy it, understand all the rules, skills, forms, and conventions whereby nature - the shrew - can be tamed and subjected to the contract of art. The passion that consumes the dilettante serves the true artist: the artist is not mauled by the beast, he tames it.
                                                                                              - Ernst Fischer

Saturday, December 18, 2010

The Origins Of Art

Man became man through tools. He made, or produced, himself by making or producing tools. The question of which came first - man or tool - is therefore purely academic. There was no tool without man and no man without tool; they came into being simultaneously and are indissolubly linked to one another. A relatively highly developed living organism became man by working with natural objects. By being put to such use, the objects became tools.

Thursday, December 16, 2010

कला का उद्देश्य

कला का उद्देश्य क्या है, किस लक्ष्य को वह सिद्ध करती है? कला का उद्देश्य है चित्रित करना, शब्दों, ध्वनियों, रेखाओं और रंगों में प्रकृति के सार्वभौम जीवन को पुनः मूर्त करना. यही कला की एकमात्र और चिरंतन विषय वस्तु है. कवि की प्रेरणा प्रकृति की रचनात्मक शक्तियों का प्रतिबिम्ब है. इसलिए कवि को, अन्य सबसे बढ़कर, प्रकृति का - भौतिक और आध्यात्मिक - दोनों रूपों में अध्ययन करना चाहिए. प्रकृति के प्रति उसके ह्रदय में प्रेम हो, संवेदनशीलता हो. अन्य सबसे बढ़कर, उसकी आत्मा शुद्ध और पवित्र हो. कारण कि उसके मंदिर में केवल नंगे पांव और स्वच्छ हाथों के साथ ही प्रवेश किया जा सकता है. केवल ऐसे ही लोग स्वर्ग के राज्य के वारिस होंगे; कारण यह कि मस्तिष्क और ह्रदय के सामंजस्य में ही मानव सर्वोच्च पूर्णता प्राप्त करता है. कवि जितना अधिक प्रतिभाशाली होगा, उतनी ही गहराई और व्यापकता के साथ वह प्रकृति को अपने ह्रदय से लगाएगा और उतनी ही सफलता से वह उसे उसके परम सजीव और घनिष्ठ रूप में कमरे लिए चित्रित करेगा.
                                                                                                                    -बेलिंस्की

Wednesday, December 15, 2010

कला और जीवन

कला को निश्चय ही पहले कला होना चाहिए, केवल इसके बाद ही वह किसी एक युग में समाज कि आत्मा और उसके रुझान कि अभिव्यक्ति हो सकती है. . .अगर उसमें कविता नहीं है तो न तो वह सुन्दर भावों को पेश कर सकती है , न किन्ही समस्याओं को. अधिक से अधिक उसके बारे में यही कहा जा सकता है कि इसका आशय अच्छा था, लेकिन सारा गुड गोबर हो गया!
लेकिन, यह पूरी तरह मानते हुए भी कि कला को कला होना चाहिए, हम मानते हैं कि विशुद्ध हवाई कला का सिद्धांत, जो अपने ही लोक में रहता है और जीवन के अन्य पहलुओं से कोई वास्ता नहीं रखता, एक स्वप्निल शून्य है. ऐसी कला का कभी कही अस्तित्व नहीं रहा.(जोर हमारा)
                                                                                                            --बेलिंस्की

Sunday, December 12, 2010

अगर देश की सुरक्षा यही होती है
कि हर हड़ताल को कुचल कर अमन को रंग चढ़ेगा
कि वीरता बस सरहदों पर मरकर ही परवान चढ़ेगी
कला का फूल बस राजा की खिड़की में ही खिलेगा
बुद्धि हुक्म के कुँए पर रहट की तरह पानी ही भरेगी
मेहनत राजमहल की दर पर झाड़ू ही बनेगी
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है
                                    (पाश)

Monday, December 6, 2010

In Lieu of an Editorial

आरंभ में वे क्रियाएं अत्यंत सरल रही हांगी, जिनके लिए हमारे पूर्वजों ने वानर से मानव में संक्रमण के हजारों वर्षों में अपने हाथों को अनुकूलित करना धीरे-धीरे सीखा होगा। निम्नतम प्राकृत मानव भी, वे प्राकृत मानव भी, जिनमें हम अधिक पशुतुल्य अवस्था में प्रतिगमन तथा उसके साथ ही साथ शारीरिक अपह्रास का घटित होना मान ले सकते हैं, इन अंतर्वर्ती जीवों से कहीं श्रेष्ठ है। मानव हाथों द्वारा पत्थर की पहली छुरी बनाए जाने से पहले शायद एक ऐसी अवधि गुजरी होगी, जिसकी तुलना में ज्ञात ऐतिहासिक अवधि नगण्य सी लगती है। किन्तु निर्णायक पग उठाया जा चुका था, हाथ मुक्त हो गया था और अब से अधिक दक्षता एवं कुशलता प्राप्त कर सकता था तथा इस प्रकार प्राप्त उच्चतर नमनीयता वंशागत होती थी और पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ती जाती थी।
अतः हाथ केवल श्रमेन्द्रिय ही नहीं है, वह श्रम की उपज भी है। श्रम द्वारा ही, नित नयी क्रियाओं के प्रति अनुकूलन के द्वारा ही, इस प्रकार उपार्जित पेशियों, अस्थिबंधों - और अधिक दीर्घतर अवधियों में हड्डियों - के विशेष विकास की वंशागतता के द्वारा ही तथा इस वंशागत पटुता के नये, अधिकाधिक जटिल क्रियाओं में नित पुनरावृŸा उपयोग के द्वारा ही मानव हाथ ने वह उच्च परिनिष्पन्न्ता प्राप्त की है, जिसकी बदौलत रेफेल की सी चित्रकारी, थोर्वाल्दसन की सी मूर्तिकारी और पागानीनी का सा संगीत आविर्भूत हो सके। (ज़ोर हमारा)
                                                                                                     फ्रेडरिक एंगेल्स
                                                                                        “प्रकृति की द्वंद्वात्मकता“