कला को निश्चय ही पहले कला होना चाहिए, केवल इसके बाद ही वह किसी एक युग में समाज कि आत्मा और उसके रुझान कि अभिव्यक्ति हो सकती है. . .अगर उसमें कविता नहीं है तो न तो वह सुन्दर भावों को पेश कर सकती है , न किन्ही समस्याओं को. अधिक से अधिक उसके बारे में यही कहा जा सकता है कि इसका आशय अच्छा था, लेकिन सारा गुड गोबर हो गया!
लेकिन, यह पूरी तरह मानते हुए भी कि कला को कला होना चाहिए, हम मानते हैं कि विशुद्ध हवाई कला का सिद्धांत, जो अपने ही लोक में रहता है और जीवन के अन्य पहलुओं से कोई वास्ता नहीं रखता, एक स्वप्निल शून्य है. ऐसी कला का कभी कही अस्तित्व नहीं रहा.(जोर हमारा)
--बेलिंस्की
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