आरंभ में वे क्रियाएं अत्यंत सरल रही हांगी, जिनके लिए हमारे पूर्वजों ने वानर से मानव में संक्रमण के हजारों वर्षों में अपने हाथों को अनुकूलित करना धीरे-धीरे सीखा होगा। निम्नतम प्राकृत मानव भी, वे प्राकृत मानव भी, जिनमें हम अधिक पशुतुल्य अवस्था में प्रतिगमन तथा उसके साथ ही साथ शारीरिक अपह्रास का घटित होना मान ले सकते हैं, इन अंतर्वर्ती जीवों से कहीं श्रेष्ठ है। मानव हाथों द्वारा पत्थर की पहली छुरी बनाए जाने से पहले शायद एक ऐसी अवधि गुजरी होगी, जिसकी तुलना में ज्ञात ऐतिहासिक अवधि नगण्य सी लगती है। किन्तु निर्णायक पग उठाया जा चुका था, हाथ मुक्त हो गया था और अब से अधिक दक्षता एवं कुशलता प्राप्त कर सकता था तथा इस प्रकार प्राप्त उच्चतर नमनीयता वंशागत होती थी और पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ती जाती थी।
अतः हाथ केवल श्रमेन्द्रिय ही नहीं है, वह श्रम की उपज भी है। श्रम द्वारा ही, नित नयी क्रियाओं के प्रति अनुकूलन के द्वारा ही, इस प्रकार उपार्जित पेशियों, अस्थिबंधों - और अधिक दीर्घतर अवधियों में हड्डियों - के विशेष विकास की वंशागतता के द्वारा ही तथा इस वंशागत पटुता के नये, अधिकाधिक जटिल क्रियाओं में नित पुनरावृŸा उपयोग के द्वारा ही मानव हाथ ने वह उच्च परिनिष्पन्न्ता प्राप्त की है, जिसकी बदौलत रेफेल की सी चित्रकारी, थोर्वाल्दसन की सी मूर्तिकारी और पागानीनी का सा संगीत आविर्भूत हो सके। (ज़ोर हमारा)
फ्रेडरिक एंगेल्स
“प्रकृति की द्वंद्वात्मकता“
रौशन शब्दों के इस ब्लॉग का स्वागत है!
ReplyDeleteफॉण्ट की कुछ गड़बड़ लगती है, कई शब्द अधूरे हैं। ठीक कर लें...
सत्यम
स्वागत है। वर्ड वेरिफिकेशन हटा दो।
ReplyDeleteअच्छा लगा आपको यहां देखकर।
ReplyDeleteथोड़ा शुद्ध शुद्ध टाइप किया कीजिए।
मशाल्लाह
ReplyDeleteहम तह-ए-दिल से उम्मीद करते हैं की ये रोशनाई बिखेरेगा . .